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अहिंसा और हिंसा
अहिंसा को शास्त्रों में परम धर्म कहा गया है, क्योंकि यह मनुष्यता का प्रथम चिन्ह है। दूसरों को कष्ट, पीड़ा या दुःख देना निःसंदेह बुरी बात है, इस बुराई के करने पर हमें भयंकर पातक लगता है। और उस पातक के कारण नारकीय रारव यातनायें सहन करनी पड़ती हैं। बौद्ध और जैन धर्म तो अहिंसा को ही संपूर्ण धर्म मानते हैं। अन्य धर्मों में भी अहिंसा के लिए बहुत ऊँचा स्थान है।
ऐसे प्रधान धर्म का पालन करने के लिए यह आवश्यक है कि उसके तत्वज्ञान पर एक विवेचनात्मक दृष्टि डाली जाय। हमें जानना चाहिए कि हिंसा क्या है। और दूसरों को दुःख की व्याख्या क्या है। किसी को दुख न देने की मोटी कहावत तो इतनी स्थूल है कि उसका आचरण करने पर एक घंटे भी कोई प्राणी जीवित नहीं रह सकता और एक दिन भी ऐसी अहिंसा काम में आने लगे तो सृष्टि सर्...
अहिंसा और हिंसा (भाग 2)
बड़े बुद्धिमान, ज्ञानवान, शरीरधारी प्राणियों को दुख देने, दण्ड देने या मार डालने या हिंसा करने के समय यह विचारना आवश्यक है। कि यह दुख किस लिए दिया जा रहा है। सब प्रकार के दुख को पाप और सब प्रकार के सुख को पुण्य नहीं कहा जा सकता। गरीब भेड़ों के खून के प्यासे भेड़ियों को मार डालना न तो पाप है और न सर्प को दूध पिलाना पुण्य है। हिंसा अहिंसा की परिभाषा कष्ट या आराम के आधार पर करना एक बड़ा घातक भ्रम है। जिसके कारण केवल पाप का विकास और धर्म का नाश होता है।
एक आप्त वचन है कि- वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति अर्थात्- विवेकपूर्वक की गई हिंसा हिंसा नहीं है।
अविवेकपूर्वक दूसरों को जो कष्ट दिया गया है वह हिंसा है। जिह्वा की चटोरेपन के लोभ में निरपराध और उपयोगी पशु पक्षियों का माँस खाने के लिए उनकी गरदन पर छ...
अहिंसा और हिंसा (अंतिम भाग)
यह सोचना गलती है कि दुख देना हिंसा और आराम देना अहिंसा है। तत्वतः काम के परिणाम और करने वाले की नियत के अनुसार हिंसा अहिंसा का निर्णय होना चाहिये। तात्कालिक और क्षणिक दुख-सुख में दृष्टि को अटकाकर उससे उत्पन्न होने वाले परिणाम की ओर से आँखें बन्द कर लेना बुद्धिमानी न होगी। किये हुए कार्य के परिणाम का गंभीरतापूर्वक सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने के उपरान्त उसके उचित या अनुचित होने का निर्णय करना चाहिए और उसी के आधार पर उस कार्य को हिंसा या अहिंसा ठहराना चाहिये।
विवेकपूर्वक पालन की जाने वाली अहिंसा में दंड देने की, शस्त्र प्रहार करने की युद्ध और संघर्ष करने की गुंजाइश है। एक विचारवान व्यक्ति नेक नीयती, परोपकार और धर्म भावना से अहिंसा धर्म के अनुसार दुष्ट को जान से भी मार सकता है और इसके लिए वह ...
विचार एक मजबूत ताकत
शुभ सात्विक और आशापूर्ण विचार एक वस्तु है। यह एक ऐसा किला है, जिसमें मनुष्य हर प्रकार के आवेगों और आघातों से सुरक्षित रह सकता है। लेकिन मनुष्य को उत्तम विचार ही रखने और अपनी आदत में डालने अभ्यास निरंतर करना चाहिए। विचार फालतू बात नहीं है। यह एक मजबूत ताकत है। इसका स्पष्टï स्वरूप है। उसमें जीवन है। यह स्वयं ही हमारा मानसिक जीवन है। यह सत्य है। विचार ही मनुष्य का आदिरूप है। पानी में लकड़ी, पत्थर, गोली आदि फेंकने से जैसा आघात होता है, जैसा रूप बनता है, जो प्रभाव होता है, वैसा ही तथा उससे भी अधिक तेज आघात विचारों को फेंकने से होता है। मनुष्य के सृजनात्मक विचारों में नव-रचना करने की अदï्भूत शक्ति है। मनुष्य के जिस रंग, रूप, गुण, कर्म, संस्कार के विचार होते हैं, उसी दिशा में उसकी तीव्र उन्नति होती...
प्रेम या अपनत्व
अपनों के लिए स्वभावत: उनके दोषों को छिपाने और गुणों को प्रकट करने की आदत होती है। कोई भी पिता अपने प्यारे पुत्र के दोषों को नहीं प्रकट करता है। वह तो उसकी प्रशंसा के पुल ही बाँधता रहता है। दुर्गुणी बालक को न तो कोई मार डालता है और न जेल ही पहँुचा देता है, वरन्ï यह प्रयत्न करता है कि किसी सरल उपाय से उसके दुर्गुण दूर हो जाए या कम हो जाए। यदि यही बात अपने परिजनों के साथ हम रखें, तो उनके अंदर जो बुरे तत्त्व वर्तमान हैं, वे घट जायेंगे। डाकू, हत्यारे, ठग, व्यभिचारी आदि क्रूर कर्मी लोग भी अपने स्त्री, पुत्र, भाई, बहिन आदि के प्रति मधुर व्यवहार ही करते हैं। सिंह अपने बाल-बच्चों को नहीं फाड़ खाता।
प्रेम एक ऐसा गोंद है, जो टूटे हुए हृदय को जोड़ता है। बिछुड़ों को मिलाता है। यदि किसी के साथ हमारा आ...
सदगुरु की आवश्यकता
अनेक महत्त्वपूर्ण विधाएँ गुरु के माध्यम से प्राप्त की जाती हैं और तंत्र विद्या का प्रवेश द्वार तो अनुभवी मार्गदर्शक के द्वारा ही खुलता है। अक्षराम्भ यद्यपि हमारी दृष्टि में सामान्य सी बात है, पर छोटा बालक उस कार्य को अध्यापक के बिना अकेला ही पूर्ण करना चाहे, तो नहीं कर सकता, भले ही वह कितना ही मेधावी क्यों न हो। गणित, शिल्प, सर्जरी, साइन्स, यन्त्र निर्माण आदि सभी महत्त्वपूर्ण कार्य अनुभवी अध्यापक ही सिखाते हैं। कोई छात्र शिक्षक की आवश्यकता न समझे और स्वयं ही यह सब सीखना चाहे, तो उसे कदाचित्ï ही सफलता मिले। रोगी को अपनी चिकित्सा कराने के लिए किसी अनुभवी चिकित्सक की शरण लेनी पड़ती है, यदि वह अपने आप ही इलाज करने लगे, तो उसमें भूल होने की सम्भावना रहेगी, क्योंकि अपने संबंध में निर्णय करना हर व्...
उसे जड़ में नहीं, चेतन में खोजें
समझा जाता है कि विधाता ही मात्र निर्माता है। ईश्वर की इच्छा के बिना पत्ता नहीं हिलता। दोनों प्रतिपादनों से भ्रमग्रस्त न होना हो, तो उसके साथ ही इतना और जोडऩा चाहिए कि उस विधाता या ईश्वर से मिलने-निवेदन करने का सबसे निकटवर्ती स्थान अपना अंत:करण ही है। यों ईश्वर सर्वव्यापी है और उसे कहीं भी अवस्थित माना, देखा जा सकता है; पर यदि दूरवर्ती भाग-दौड़ करने से बचना हो और कस्तूरी वाले मृग की तरह निरर्थक न भटकना हो, तो अपना ही अंत:करण टटोलना चाहिए। उसी पर्दे के पीछे बैठे परमात्मा को जी भरकर देखने की, हृदय खोलकर मिलने-लिपटने की अभिलाषा सहज ही पूरी कर लेनी चाहिए।
ईश्वर जड़ नहीं, चेतन है। उसे प्रतिमाओं तक सीमित नहीं किया जा सकता है। चेतना वस्तुत: चेतना के साथ ही, दूध पानी की तरह घुल-मिल सकती है। मानवी...
हे मनुष्य! तुम महान हो!
तुम्हारा वास्तविक स्वरूप- तुम्हारे हिस्से में स्वर्ग की अगणित विभूतियाँ आई हैं न कि नर्क की कुत्सित। तुमको वही लेना चाहिये, जो तुम्हारे हिस्से में आया है। स्वर्ग तुम्हारी ही सम्पत्ति है। शक्ति तुम्हारा जन्म सिद्ध अधिकार है। तुमको केवल स्वर्ग में प्रवेश करना है तथा शक्ति का अर्जन करना है। स्वर्ग में सुख ही सुख है। वहाँ आत्मा को न तो किसी बात की चिन्ता रहती है और न किसी प्रकार की इच्छा। तूफान मचाने वाले विकारों की आसुरी लीला या भय के भूतों का लेश भी वहाँ नहीं है। वह ‘स्वर्ग’ इस संसार में ही है। वह तुम्हारे भीतर है। उसे खोजने का प्रयत्न करो, अवश्य तुम्हें प्राप्त हो जायगा।
संसार में फैले हुए पाप, निकृष्टता, भय, शोक तुम्हारे हिस्से में नहीं आये हैं। मोह, शंका, क्षोभ की तरंगें तुम्हारे मानस-...
स्वाध्याय- एक योग
जीवन को सफल, उच्च एवं पवित्र बनाने के लिए स्वाध्याय की बड़ी आवश्यकता है। किसी भी ऐसे व्यक्ति का जीवन क्यों न देख लिया जाये, जिसने उच्चता के सोपानों पर चरण रखा है। उसके जीवन में स्वाध्याय को विशेष स्थान मिला होगा। स्वाध्याय के अभाव में कोई भी व्यक्ति ज्ञानवान नहीं बन सकता। प्रतिदिन नियमपूर्वक सद्ïग्रन्थों का अध्ययन करते रहने से बुद्धि तीव्र होती है, विवेक बढ़ता है और अन्त:करण की शुद्धि होती है। इसका स्वस्थ एवं व्यावहारिक कारण है कि सद्ïग्रन्थों के अध्ययन करते समय मन उसमें रमा रहता है और ग्रन्थ के सद्ïवाक्य उस पर संस्कार डालते रहते हैं।
स्वाध्याय द्वारा अन्त:करण के निर्मल हो जाने पर मनुष्य के बाह्यï अन्तर पट खुल जाते हैं, जिससे वह आत्मा द्वारा परमात्मा को पहचानने के लिए जिज्ञासु हो उठता ...
धर्म धारणा की व्यवहारिकता
शान्ति के साधारण समय में सैनिकों के अस्त्र-शस्त्र मालखाने में जमा रहते हैं; पर जब युद्ध सिर पर आ जाता है, तो उन्हें निकाल कर दुरुस्त एवं प्रयुक्त किया जाता है। तलवारों पर नये सिरे से धार धरी जाती है। घर के जेवर आमतौर से तिजोरी में रख दिये जाते हैं; पर जब उत्सव जैसे समय आता है, उन्हें निकालकर इस प्रकार चमका दिया जाता है, मानो नये बनकर आये हों। वर्तमान युगसंधि काल में अस्त्रों-आभूषणों की तरह प्रतिभाशालियों को प्रयुक्त किया जायेगा। व्यक्तियों को प्रखर प्रतिभा सम्पन्न करने के लिए यह आपत्तिकाल जैसा समय है। इस समय उनकी टूट-फूट को तत्परतापूर्वक सुधारा और सही किया जाना चाहिए।
अपनी निज की समर्थता, दक्षता, प्रामाणिकता और प्रभाव-प्रखरता एक मात्र इसी आधार पर निखरती है कि चिंतन, चरित्र और व्यवहार में...